Friday, 24 December 2010

इंदिरा नेहरु से इंदिरा गाँधी तक!


मैंने जब तक होश संभाला तब तक emergency खत्म हो चुकी थी और इंदिरा जी भारतवर्ष कि प्रधानमंत्री  हुई करती थी. तब मैं यही सोचता था कि इंदिरा गाँधी महात्मा गाँधी कि बेटी है और काफी समय तक इसी भुलावे में रहा.

इंदिरा नेहरु का जनम १९१७  में अलाहबाद में हुआ था. शान्तिनिकेतन में आरंभिक शिक्षा के चलते गुरु रबिन्द्र नाथ टगोर ने इंदिरा को  'प्रियदर्शनी' का नाम दिया था. हालाँकि स्वंतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में इंदिरा के योगदान कि ज्यादा चर्चा सुनने को नहीं मिलती है परन्तु १९४२ में इंदिरा जी २५ साल कि हो  चुकी थी और उसमे उनका भी योगदान रहा है.

वैसे भी भारतीय इतिहास हम भारतियों को आज  तक गुमराह ही करता आया, कितने ऐसे कद्दावर नेता और नेता इतिहास के पन्नो में दफ़न ही  होके रह गए है, मुख्यत: भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस,श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मास्टर तारा सिंह, सरदार पटेल.

चंद  दिनों पहले मेरे एक मित्र ने मुझसे  सरदार (पटेल) फिल्म देखने का आग्रह किया, जिसको देखने के पश्चात मुझे ज्ञात हुआ कि नेहरु जी तो प्रधानमंत्री पद के नैतिक अधिकारी थे ही नहीं क्यूंकि १६ में से १३ समितियों ने सरदार पटेल को कांग्रेस का नेता चुना था.

चलिए वापस आते इंदिरा नेहरु के मुद्दे पर. इंदिरा जी कि उच्च शिक्षा इंग्लैंड में हुई जहाँ उनकी मुलाकात फ़िरोज़  से हुई. यह विषय काफी विवादस्पद है और हो सकता है कि मैं गलत हूँ. चूँकि फ़िरोज़ एक पारसी  थे इसीलिए नेहरु जी को यह रिश्ता पसंद नहीं था. ऐसा प्रतीत होता है कि इंदिरा जी कि जिद के चलते नेहरु जी को इसके लिए हाँ करनी पड़ी  थी. ऐसा माना जाता है कि महात्मा गाँधी ने अपना नाम फ़िरोज़ को दिया था ताकि उन्हें राजनितिक क्षेत्र में स्वीकृति मिल सके. १९४२ में इंदिरा जी के फ़िरोज़ जी के साथ विवाह के पश्चात वो इंदिरा गाँधी के नाम से ही जानी गई है. वैसे इस विषय में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है क्यूंकि कांग्रेस पार्टी भारतवासियों को गुमराह करने में शुरू से ही काफी मुस्तैद रही है.



अब समय आ गया है कि इतिहास कि किताबों में फिर से झाँका जाए और सत्य कि खोज कि जाए. फिर से उन नेताओ को जिन्हें कांग्रेस पार्टी भुला चुकी है उनको आदर सामान दिलाया जाये. बाते जाये भारतवर्ष को कि सुभाष जयंती कब है और क्यों सुभाष, भगत सिंह, पटेल, तिलक, लाला जी  भारत माता के भुला दिए लालों में से है.

जय हिंद  
सुभाष जयंती २३ January !

Thursday, 30 September 2010

तो मेनू की ( मुझे क्या फर्क पड़ता है?)

 ( यह दृष्टिकोण एक नास्तिक का है और मेरा आस्तिक लोगो को आहात करने का कोई इरादा नहीं है)


मंदिर बने या मस्जिद या फिर गुरुद्वारा या गिरिजाघर उस से मुझे क्या फरक पड़ने वाला है.
मुझे मंदिर गए बहुत समय हो गया है वैसे भी मैं नास्तिक हूँ और धरम से मेरा दूर दूर का वास्ता नहीं है. दान पुण्य में करता नहीं हूँ खासकर के जब वह धर्म के नाम पर हो तो बिलकुल भी नहीं.
मेरा उन हिन्दुओं से जो आजके फैसले से प्रसन्न है एक ही सवाल है कि वह मंदिर एक हफ्ते में कितनी बार जाते है और कितना दान पुण्य करते है.

यहाँ derby में भी एक हिन्दू मंदिर है. एक दिन वहा के पंडित जी से मेरी बातचीत हो रही थी. (पंडित से मेरी मित्रता थी) तो वह कह रहा था कि हमारे यहाँ दान्कोश में छुट्टे पैसे निकलते है और गुरूद्वारे जाओ तो वहा कागज़ के नोट ज्यादा निकलते है. यहाँ पर जितने हिन्दू मित्रगण भी साल में विरले ही मंदिर का रुख करते है. मंदिर कि अर्थव्यस्था गुरूद्वारे के समक्ष बहुत ही कमजोर है. पंडित जी तो यहाँ तक कह रहे थे कि इस मंदिर का निर्माण भी गुरूद्वारे के दिए हुए दान के चलते ही पूरा हो पाया.

http://ibnlive.in.com/videos/132050/y-not-mood-of-the-young-and-old-in-ayodhya.html
ऊपर दी गई विडियो क्लिप अयोध्या के लोगों के उदगार है. मैं कभी अयोध्या गया भी नहीं हूँ और न ही मेरे परिवारजन. अगर यह मंदिर बन भी जाता है तो अयोध्या शहर का जो बुनियादी ढांचा इतने बड़े हिन्दू तीर्थ का बोझ सह पायेगा? और जैसे कि सावल उठाये है अयोध्या वासियों ने कि उन्हें इससे क्या लाभ होगा?
या फिर जो लोग राम लाला का मंदिर बनाने से खुश होंगे उन्हें उस से क्या मिलेगा?

Tuesday, 28 September 2010

पाठ्यकर्म और हिंदी का ह्रास

मुझे याद है की जब मैं पांचवी या छठी कक्षा में था तो हमारी हिंदी की पुस्तक में दो बहुत ही गुदगुदाने वाली कहानियां थी - चिकित्सा का चक्कर और साईकिल की सवारी. जब भी में बोर होता था तो उन अध्यायों को पढ़ लेता था और अपना मनोरंजन कर लेता था.
मुझे हिंदी पढने और लिखने का बहुत शौक है और इसीलिए मेरी यह हार्दिक इच्छा है की मैं अपनी मनपसंदीदा कहानियां एक बार फिर से पढ़ सकू. मैंने बहुत प्रयास किया लेकिन यह दोनों कहानिया अंतरजाल पर उपलब्ध नहीं है. किसी तरीके से मुझे सुदर्शन जी की साईकिल की सवारी मिल पाई है लेकिन चिकित्सा का चक्कर अभी तक नहीं मिल पाई है.
http://ia331224.us.archive.org/1/items/Cycle_395/sudarshan-cycle.म्प३
 
 जब में आजकल की युवा पीढ़ी से रूबरू होता हु तो मुझे कभी कभी बहुत अफ़सोस होता है यह जानकार की वह हिंदी पढने में अक्षम है. पता नहीं इसका कारण  क्या है ? क्या इसके लिए मीडिया दोषी है या फिर शिक्षकगण या फिर पाठयक्रम. आजकल सारा पाठ्यक्रम  बदल गया है किताबों में न तो परसाई जी के कोई व्यंग्य है और न सुदर्शन जी के. वैसे ही गध्य अध्ययन में प्रेमचंद या फिर संकृत्यायन जी के कोई लेख.

कभी कभी सोचता हूँ की अगर हिंदी का इसी तरह ह्रास होता रहा तो क्या हिंदी भी बाघ की तरह लुप्त होने के कगार पे पहुँच जाएगी?

मेरे परम मित्र के छोटा भाई है उसको अंग्रेजी गाने और सहित्य का बहुत शौक है, टॉम हंक्स का दीवाना है लेकिन आप उस से देव आनंद के बारे में पूछो तो कहता है
"भय्या मुझे हिंदी फिल्मे देखना पसंद नहीं है "
उसको सड़ी से सड़ी अंग्रेजी फिल्म दिखा लो देख लेगा.

पता नहीं मुझे क्यों ऐसा लगता है की युवा पश्चिमी सभ्यता की और ज्यादा आकर्षित होता जा रहा है. सिगरेट और शराब पीना आधुनिकता के प्रतीक माने जाने लगे है. हिंदी में वार्तालाप करना गंवारपन की निशानी है, अगर आपका रूझान शास्त्रीय संगीत की और है तो आप बोर है, अगर आप पारंपरिक परिधान पहनते है तो आप बेहेंजी टाइप या फिर गंवार है.

http://www.facebook.com/#!/video/video.php?v=400396119312&ref=mf
इस चलचित्र में एक माँ अपने से पुत्र से अंग्रेजी में बतियान रही है और वह अपनी माँ को समझने में अक्षम है. लोग इसको देख के हस्ते है पर मुझे तो बड़ा क्षोभ  होता है क्युकी शायद हम भारतीय ही हैं   जो अपने बच्चों के साथ विदेशी भाषा में बतियाते है.


ऐसा प्रतीत होता है की भले ही हम गुलाम नहीं रहे पर मानसिकता अभी भी वही है.
ps :  अगर किसी महानुभाव को हरिशंकर जी की चिकित्सा वाले लेख का कोई लिंक ज्ञात हो कृपया मार्गदर्शन करें

Saturday, 25 September 2010

माताश्री का इंग्लैंड आगमन

मम्मी छुटपन में मुझे श्रवण कुमार की कहानी सुनाती थी, शायद इसके पीछे उनकी यही मंशा रही हो की उनका बेटा भी श्रवण कुमार ही निकले. अब यह कहाँ तक सही हो पाया यह तो वही जाने.

मेरी यह हार्दिक इच्छा थी की अपने साथ साथ अपने परिवारजनों की भी जगह जगह भ्रमण  कराऊँ. मम्मी को इंग्लैंड घुमाने का प्रयास मैं काफी समय से कर रहा था परन्तु यह २०१० की गर्मियों में जा कर ही साकार हो पाया. अन्तंत माताश्री जून २०१० को इंग्लैंड के हीथ्रो विमानपतन तक पहुँचने में सफल हो ही गई.

माताश्री को इंग्लैंड बहुत पसंद आया. विशेषत: यहाँ का साफ़ सुथरा वातावरण और अनुसशित नागरिक. माताजी का इंग्लैंड प्रवास तक़रीबन तीन महीने का था और इस दौरान मेरा प्रयास यही था की मैं उन्हें ज्यादा से ज्यादा पर्यटन स्थल दिखा सकूँ.
thames नदी की किनारे 

गोल्डेन eye

लिसेस्टर मिष्टान की दूकान 
झील की kinare
माताश्री पाक कला में सिद्धहस्त है, उन्होंने  तरह तरह के स्वादिष्ट व्यंजनों से हमारी उदर पूर्ती कराई. खासकर के पोहा, साबूदाने की खिचड़ी, संभार, कश्मीरी गोश्त , लाल गोश्त इत्यादि इत्यादि.

मम्मी का हमारी सुपुत्री रोहिनी के साथ अच्छा समय व्यतीत हुआ और रोहिनी सिर्फ दादी के हाथ से fruits खाती थी.
मम्मी का दूसरा सबसे ज्यादा समय television के सामने कटा.   

क्यूंकि मैं भी टीवी का बहुत बड़ा चोर हूँ, इसलिए अगर टेनिस के matches आ रहे हो तो मम्मी को जबरन देखने पड़ते थे, परन्तु इस चक्कर में मम्मी राफेल नदाल की फेन बन गयी, जबकि मैं फेडरेर का फेन हूँ. मम्मी ने पूरा विम्ब्लेदों देखा और पूरे टूर्नामेंट के दौरान नदाल को सुप्पोर्ट करती रही और सारे matches देखे.

एक दिन टीवी में baghbaan फिल्म आ रही थी. मैंने कहा भी यह फिल्म न देखो बड़ी रोने धोने वाली है. परन्तु मेरी बात कौन सुनता है. अकेले बैठ कर देखती रहीं, जब मैं आया तो देखा रो रही थी.
मैंने कहाँ अब क्या हुआ? 
तो बोली, अमिताभ का चस्मा टूट गया है और उसके बेटे बना के नहीं दे रहे है.
मैं सोफे पर बैठा तो वहा चस्मा पड़ा हुआ था, और मेरे बैठने से टूट गया.
मैंने कहा, आपने जान के यहाँ रखा होगा, ताकि जान सको की मैं चस्मा ठीक करवाता हूँ या नहीं?
मैंने चस्मा ठीक करवा दिया, अगले ही दिन, नहीं तो baghbaan फिल्म तो अपना काम कर गई थी.



अब तो यही प्रतीक्षा है की मम्मी जल्दी से जल्दी वापस इंग्लैंड आये और हम सब के साथ आनंद से रहे.

Sunday, 17 January 2010

बम्बई से गोवा



कॉलेज पास करने के पश्चात हम अब बेरोजगारों की श्रेणी में आ चुके थे. कॉलेज के होनहार छात्र एवं छात्राये अच्छे पदों को प्राप्त कर चुके थे और हम जैसे निखट्टू मैं, राका, नथु, सांगा अभी भी दर दर की ठोकरे खा रहे थे. जॉब हंट के लिए मेरा और राका का अगला पड़ाव सैलानियों की राजधानी और कबाब, शबाब और शराब की जन्नत गोवा था!

हमारा गोवा जाने का उद्देश्य सिर्फ नौकरी की तलाश ही नहीं अपितु सैर सपाटा भी था. अब तक मैं सिर्फ समंदर के सपने ही देखते आया था और अब उसको असल में देखने का समय आ गया था. (वैसे समंदर बम्बई में भी है परन्तु गोवा वाला मज़ा नहीं है! )

हम दोनों की आर्थिक स्थिति तो कुछ खास अच्छी नहीं थी, मेरे पास शायद ७००-८०० रूपए होंगे और राका मुझसे भी ख़राब अवस्था में था. भाइयो और बहनों उस समय ए टी म कार्ड नहीं होते थे अर्थात अगर पैसे ख़तम हो गए तो भीख  मांगनी या फिर बर्तन मांजने पड़ते.

खैर हमने सबसे सस्ते जाने के चक्कर में दादर से जाने वाली कदम्बा ट्रावेल्स की टिकेट खरीद ली और दिन के ढाई बजे बस में जा के बैठ गए. वैसे तो बस का सफ़र १४-१५ घंटे का था और अगले दिन सुबह ७ बजे का गोवा आगमन था. राका पहले गोवा जा चूका था लेकिन मेरी पहली ट्रिप थी और मेरा दिल  भीतर ही भीतर कुलांचे मार रह था.

सब कुछ बढ़िया चल रह था. बॉम्बे से गोवा का रास्ता बड़ा ही मनोरम है भले ही आप ट्रेन से जाये या बस से. गोवा पहुँचने से ठीक दो घंटे की दूरी पर हमारी बस ख़राब हो गयी. मालूम पड़ा कदम्बा ट्रावेल्स के लिए ये कोई नई  बात नहीं थी और अक्सर ऐसा होता रहता था. बस को ठीक होने में ४ घंटे लग गए और हमें  अपने गंतव्य बानोलिम बीच  तक पहुँचने में अगले दिन के ढाई बज गए.

गोवा में हमरे कुछ seniors लीला होटल में कार्यरत थे - अथर  एंड चोबे सर...., राका ने जुगाड़  करा रखा था और हमारे रूकने का इंतजाम  इन्ही के पास था. चोबे सर ने हमारा गरम जोशी से स्वागत किया और हमें  यकीन दिलाया की चिंता करने की जरूरत नहीं है, आराम से रुको और नौकरी खोजो.

गोवा पहुंचते ही में बावला हो  गया और समन्दर का नीला नीला पानी देख और श्वेत रेत को  देख बौरा सा गया. मैंने राका से कहा भाई सबसे पहले हम तैरने जायेंगे. हमने अपने अपने कच्छे  पहने और दौड़ चले समंदर की तरफ जोकि चौबे सर के घर से पल भर की दूरी पर था.

सूरज चमक रहा था, समंदर का नीला पानी और सफ़ेद रेत   मुझे चीख चीख के पुकार रही थी.... आओ  और आके मेरा आनंद लो. मैं दौड़ता हुआ पानी में घुस गया.  यह क्या!   मेरे मुंह में नमकीन पानी चला गया.  एक ज़ोर की लहर आयी और मैंने गोता खाया और पानी पीया. इतना अनुभव बहुत था. समंदर को लेके मेरे मन में जीतने सुन्दर स्वपन थे सब चकनाचूर हो  रहे थे.

मैंने कहा भाई राका चलो मज़ा नहीं  आ रहा है.
राका बोला : का हुआ बे, तुम तो बहुत उतावले हो रहे थे पानी में कूदने के लिए, अब तैरो.
अबे ज्यादा चै चै न करो और चलो.., दीमाग मत चाटो साले  ......

पानी से बहार निकलते ही किनारे की रेत पैरों से चिपकने लगी, सोचा की घर आके नहा लेंगे इसलिए सीधे घर ही आ गए. घर पहुंचे तो हर जगह रेत ही  रेत हो गए.
चोबे सर बोले: अबे क्या कर रहे हो तुम लोग, सारे घर की वाट लगा दी हैं.
सॉरी सर, अभी साफ़ कर देंगे.

कच्छा उतरा तो और रेत निकल आयी, बाथरूम पूरा रेत से भर गया, नाली  ब्लाक हो गयी. चोबे सर को मालूम पड़ा तो आग बबूला हो गए. और बोले
" अबे राका यह किस नौटंकी को पकड़ लाये हो बे"

वो दिन है और आज है मैंने फिर कभी समंदर स्नान का नाम नहीं लिया और मन ही मन कह " भैया हमरी गंगा  जी ही  सबसे बढ़िया है, निर्मल शीतल मीठा और बिना रेत का जल.

गोवा आने का प्रयोजन तो नौकरी खोजने आये थे लेकिन राका बड़ा ही निकम्मा था और सिर्फ मौज मस्ती के लिए है उसमे फुर्ती  आती थी. हम एक सप्ताह गोवा रहे और हमने घूमने और लफंदर गिरी के सिवा कुछ और नहीं किया.

जाने  के  दिन करीब आ रहे थे और फिर से नाकामी हमारे साथ चलने को  तयार थी.

जारी रहेगा ........

Saturday, 16 January 2010

कौन जीतेगा ऑस्ट्रलियन ओपन










यह एक ऐसी तस्वीर जो शायद ही कोई फेडरेर का टेनिस फेन अपने मस्तिषक से निकाल पायेगा. यह तस्वीर है २००९ के ऑस्ट्रलियन  ओपन के पश्चात की. फेडरेर की लाख कोशिशों के बावजूद भी वो मैच जितने में नाकाम रहे है और सेहरा बंधा उस समय के चढ़ते   हुए सितारे राफेल नदाल के नाम.

इस सोमवार से ऑस्ट्रलियन ओपन २०१० शुरू होने वाला है और इसके प्रबल दावेदारों में फेडरेर, एंडी मुर्रे, नदाल एवं डेल पुत्रों का नाम सर्वोच्च है. नोवाक दोजोकोविक के जीतने के आसार  कम है क्यूंकि  उनकी २०१० की शुरुआत बड़ी ही सामान्य तरीके से हुई है. पुरुषों का टेनिस कभी भी इतना रोचक  नहीं रहा जितना की वो   आज है. फेडरेर भले ही  नंबर  १ के पायदान पर विराजमान है किन्तु उनको चुनौती   देने के लिए पीछे एक पूरा जत्था  त्यार  खड़ा है जिसमे नोवाक, मुर्रे एवं डेल पुत्रों  सम्मिलित है.

चलिए अब नज़र डालते है इस साल के दावेदारों पर वैसे तो फेडरेर सटोरियों के पसंदीदा है परन्तु जिस प्रकार से उनकी फॉर्म चल रही है उनका विजेता बनाना थोडा मुश्किल लग रहा है. नदाल  की हालत भी कुछ बढ़िया नहीं है क्यूंकि  उन्होंने पिछले अप्रैल से किसी भी पहले दस वरीयता प्राप्त खिलाडी को नहीं हराया है. नोवाक पिछले साल के अंत में अच्छा खेले पर २०१० में उनका प्रदर्शन लचर रहा है इसलिए उनसे ज्यादा उम्मीद रखना समझदारी नहीं है.

डेल पुत्रों ने बराबर विश्राम लिया है और वो साबित कर चुके है की वो ग्रां सलाम जीत सकते है. एंडी मुर्रे मेरी नज़र में फेडरेर के ताज के सबसे प्रबल  दावेदार है परन्तु लापरवाही के चलते अब तक ऐसा करने में असफल  रहे है. छुपे रुस्तोम के श्रेणी में मेरे विचार से सोडरलिंग एवं मरीन सिलिच के काफी आसार है.

तो देखिया क्या होता है, इस सोमवार से प्रतियोगिता शुरू है, देखिएगा अवश्य...

Thursday, 14 January 2010

चेतन या राजकुमार हिरानी ?



अब तो आप  सब लोगो को चेतन एवं राजू हिरानी के बीच चल रहे विवाद के विषय में पता ही होगा. हो  सकता है की यह विषय यहाँ पर चर्चित किया जा चूका होगा परन्तु मुझे अपनी बात कहने के लिए यह सबसे उचित मंच लगता है इसलिए कह रहा हूँ.

मेरी राय में हिरानी और जोशी का अपने आप  को  ३ idiots का कहानीकार बताना अन्यथा गलत है. यह बात मैं चेतन के सारे साक्षात्कार और इनेर्नेट पर शोध करने के पश्चात कह रहा हूँ. काफी स्थानों पर पढने के बाद यह मालूम पढ़ा की फिल्म एवं किताब में काफी समानताये है. इसी तथ्य को  ध्यान में रखते हुए मेरे यह मानना है की राजू हिरानी एवं अभिजात फिल्म के कथाकार कैसे हो सकते है जबकि कथा का मूल, उसके पात्र एवं उसमे कई सारी घटनायें किताब की कहानी से हुबहू ली गयी हैं.

जब विशाल भरद्वाज ने ओमकारा बनायीं तो उसके शुरुआत में ही उन्होंने shakespeare की किताब ऑथेल्लो का जिक्र  किया है. वैसे भी जब भी किताब पर कोई फिल्म बनायीं जाती है तो लेखक का नाम शुरू में ही आता है और हमेशा फिल्म को कथा से प्रभावित (adapted) बताया जाता है. राजकुमार जी का यह कहना की उन्होंने कथा बदल दी और उसमे सिर्फ ५-१० % ही किताब के अंश है उनको फिल्म के कथाकार बनाने का अधिकार नहीं देते है. ३ idiots चेतन की कहानी है और अगर निर्देशक शुरू में क्रेडिट नहीं दे सकते थे किसी भी हाल में उन्हें अपने आप को कथा कहलवाना अन्यथा अनुचित है.


 

Wednesday, 5 August 2009

स्वयंवर एक भ्रम


स्वयंवर शब्द का अर्थ देखेने जायेंगे तो अपना दूल्हा के चुनाव अपने आप। परन्तु क्या ऐसा था? राखी के स्वयंवर देखने वालो का कहना है की हिंदू धरम में स्त्री को अपना वर चुनने का अधिकार था। इसमे मेरे विचार में कुछ ज्यादा सत्यता नज़र नही आती है क्यूंकि मोटे तौर पर मुझे दो स्वयंवर के विषय में ज्ञान है- एक सीता जी का और दूसरा द्रौपदी का।

दोनों ही मेरे दृष्टिकोण से नारी अधिकारों या समानता की झलक कम और एक प्रतियोगिता होने का आभास ज्यादा दिलाती है। पहले में श्रीराम धनुष की प्रत्यंचा चढा कर विवाह करने का अधिकार प्राप्त करते है और दूसरे में अर्जुन जल में देख निशाना लगा कर। मेरे विचार से तो भारतीय समाज हमेशा से पुरूष प्रधान रह है अभी कुछ ज्यादा बदलाव नही आए है चाहे राखी के चाहने वाले कुछ भी कहते रहे।

अंत में महा घटिया सीरियल था और उस वर को सिर्फ़ गुड लुक्क कहना चाहूँगा जिसने अपने पो में कुल्हाडी मार ली है!

Friday, 10 July 2009

भारतीय रेल लखनऊ से बॉम्बे -2

लूका ने हमरा काफ़ी गरम जोशी से स्वागत किया और घोषित कर दिया की अब वो हमारा official गाइड है। लूका हमसे पहले बॉम्बे आ चुका था और यहाँ के बारे में काफ़ी कुछ जानता भी था।


"भाई लोग, एक बात बता देता हूँ, अक्खा मुंबई वडा पाँव खा के जिन्दा रहता है, इस शहर में अमीर से अमीर और गरीब से गरीब मज़े से रह सकता है "।
मेरे लिए यह सब स्वपन सा प्रतीत हो रह था और मैं मंत्रमुग्ध सा लूका का प्रवचन सुन रिया था।

लूका ने हमारे रूकने का इन्तेजाम ग्रांट रोड में किया था और कह रह था- मैं तुम्हे यहाँ इसलिए रूका रहा क्यूंकि यह जगह टाऊन से बेहद करीब है। बड़ा ही घटिया होटल थी और हम सब एक बेड का १०० रु रात्रि दे रहे थे। उस समय हमे मालूम नही था की ग्रांट रोड बम्बई के सबसे बदनाम इलाको में से एक था, लेकिन रात ढलते ही हमे इस बात का कुछ कुछ आभास सा होने लगा था.....


अबे राका यहाँ की सड़के देखो, कितनी चिकनी है!! साला लखनऊ में हो तो आदमी सो जाए...

लोकल ट्रेन में बैठे तो बावले ही हो गए और डंडो से लटक लटक एक जगह से दूसरी जगह बंदरो कीतरह उछाल कूद मचने लगे।
बॉम्बे की पहली रात ऐसा प्रतीत हो रहा था की कभी ख़तम ही नही होगी, हम लोग मालाबार हिल से चोपाती, फिर गेटवे ऑफ़ इंडिया फिर कही और फिर कही....,

लूका ने हमारे लिए एक दो जगह बात चला कर राखी हुई थी। अगली सुबह हम एम्बेसडर होटल पहुँच गए। वह पहुंचे तो मैं अपना resume होटल ही भूल आया था और मुझे लगा की अब सब गुड़गोबर क्यूंकि उस दिन जमा करने की आखरी तारीख थी। मैं डरते डरते ट्रेनिंग मेनेजर के ऑफिस गया। वह एक साफ़ रंग की साधारण से नाक नक्श की आकर्षक महिला थी, मुझे वो पहली ही नज़र में भा गई। पर उस से क्या, मुझे तो हर सुंदर लड़की भाती थी, उन्हें मैं नही भाता था। परन्तु वह क्षण मेरी जिंदगी का turning पॉइंट साबित हुआ। जेस्सी नाम ता उसका, वह बोली- तुम अपना resume परसों ले आना.

राका मेरे साथ आया था, पर वह कभी भी इन चीजों के लेकर गंभीर नही रहा। सांगा और नथू को विदेश जाने का चस्का था इसलिए वो एक एजेंट के चक्कर में बोरी बन्दर के चक्कर पे चक्कर काट रहे थे।

मेरे सितारे बुलंदी पर थे, मैंने स्क्रीनिंग टेस्ट पास किया, फिर सामूहिक विवाद में सबके छक्के छुडा दिए और अन्तिम सूचि में आ गया। परिणाम घोषित २ हफ्तों के पश्चात होना था इसलिए वह से निकले और वडा पाव भास्काया (हम तो गरीबो की श्रेणी में ही थे) और नये ठिकाने की तलाश में निकल पड़े।

मम्मी ने एक ताऊ जी का फ़ोन नो दिया था, सोचा किस्मत आजमा लू। फ़ोन किया तो उन्होंने पहचान लिया और अपने घर पर रूकने का आमंत्रण दे दिया। अभी आगे गोवा भी जाना था इसलिए कम से कम पैसो में गुजरा करना था। मैं और राका बोरिया बिस्तर ले ताऊ की पास जा धमके. सांगा और नथू , लूका के पास जा कर रहने लगे।

मेरे लिए यह आखरी अवसर था और मैं इसे व्यर्थ नही करना चाहता था। हम दोनों ने रात देर तक होटल लीला के interview की तयारी करी और भोर की प्रतीक्षा करने लगे।


एक है अनार और सो है बीमार!! लड़के लड़कियों की भीड़ आई हुई थी वह पर। मुझसे कहा गया आपको मीठा व्यंजन बनाना होगा। मैंने शेफ कोट डाला और pastry डिपार्टमेन्ट जा कर अपने हुनर को अंजाम देने की कोशिश में लग गया। इतना घटिया बनाया की मुझे उस दिन ही ज्ञात हो गया था की चाहे सूरज पश्चिम से उग आए, मैं चुना नही जओंगा।

लीला वाले बड़े ही हरामी थे, पूरा दिन हमसे काम कराया और चाय के लिए भी नही पुछा।

दिन के तीन बज चुके थे और हमारे भूख के मारे बुरे हाल थे। हम लोग अँधेरी स्टेशन की तरफ़ चलने लगे, बीच में एक चाय की दुकान आई थो सोचा कुछ नाश्ता कर लिया जाए।

-भइया २ चाय और २ प्लेट पकोडे देना।
-पकोडे नही है।
-हैं, तो वो बहार टोकरी में क्या रखे हो?
- वो!। वो तो भजिया है।


मेरी जान में जान आई, हमने कहा - हा भाई वही, हम लोग इसे पकोडा बोलते है।

बॉम्बे का पडाव अपने अन्तिम चरण पर था, जॉब hunting के लिए अगला शहर tourism कैपिटल ऑफ़ इंडिया यानि की गोवा.............

भारतीय रेल लखनऊ से बॉम्बे -2

लूका ने हमरा काफ़ी गरम जोशी से स्वागत किया और घोषित कर दिया की अब वो हमारा official गाइड है। लूका हमसे पहले बॉम्बे आ चुका था और यहाँ के बारे में काफ़ी कुछ जानता भी था।


"भाई लोग, एक बात बता देता हूँ, अक्खा मुंबई वडा पाँव खा के जिन्दा रहता है, इस शहर में अमीर से अमीर और गरीब से गरीब मज़े से रह सकता है "।
मेरे लिए यह सब स्वपन सा प्रतीत हो रह था और मैं मंत्रमुग्ध सा लूका का प्रवचन सुन रिया था।

लूका ने हमारे रूकने का इन्तेजाम ग्रांट रोड में किया था और कह रह था- मैं तुम्हे यहाँ इसलिए रूका रहा क्यूंकि यह जगह टाऊन से बेहद करीब है। बड़ा ही घटिया होटल थी और हम सब एक बेड का १०० रु रात्रि दे रहे थे। उस समय हमे मालूम नही था की ग्रांट रोड बम्बई के सबसे बदनाम इलाको में से एक था, लेकिन रात ढलते ही हमे इस बात का कुछ कुछ आभास सा होने लगा था.....


अबे राका यहाँ की सड़के देखो, कितनी चिकनी है!! साला लखनऊ में हो तो आदमी सो जाए...

लोकल ट्रेन में बैठे तो बावले ही हो गए और डंडो से लटक लटक एक जगह से दूसरी जगह बंदरो कीतरह उछाल कूद मचने लगे।
बॉम्बे की पहली रात ऐसा प्रतीत हो रहा था की कभी ख़तम ही नही होगी, हम लोग मालाबार हिल से चोपाती, फिर गेटवे ऑफ़ इंडिया फिर कही और फिर कही....,

लूका ने हमारे लिए एक दो जगह बात चला कर राखी हुई थी। अगली सुबह हम एम्बेसडर होटल पहुँच गए। वह पहुंचे तो मैं अपना resume होटल ही भूल आया था और मुझे लगा की अब सब गुड़गोबर क्यूंकि उस दिन जमा करने की आखरी तारीख थी। मैं डरते डरते ट्रेनिंग मेनेजर के ऑफिस गया। वह एक साफ़ रंग की साधारण से नाक नक्श की आकर्षक महिला थी, मुझे वो पहली ही नज़र में भा गई। पर उस से क्या, मुझे तो हर सुंदर लड़की भाती थी, उन्हें मैं नही भाता था। परन्तु वह क्षण मेरी जिंदगी का turning पॉइंट साबित हुआ। जेस्सी नाम ता उसका, वह बोली- तुम अपना resume परसों ले आना.

राका मेरे साथ आया था, पर वह कभी भी इन चीजों के लेकर गंभीर नही रहा। सांगा और नथू को विदेश जाने का चस्का था इसलिए वो एक एजेंट के चक्कर में बोरी बन्दर के चक्कर पे चक्कर काट रहे थे।

मेरे सितारे बुलंदी पर थे, मैंने स्क्रीनिंग टेस्ट पास किया, फिर सामूहिक विवाद में सबके छक्के छुडा दिए और अन्तिम सूचि में आ गया। परिणाम घोषित २ हफ्तों के पश्चात होना था इसलिए वह से निकले और वडा पाव भास्काया (हम तो गरीबो की श्रेणी में ही थे) और नये ठिकाने की तलाश में निकल पड़े।

मम्मी ने एक ताऊ जी का फ़ोन नो दिया था, सोचा किस्मत आजमा लू। फ़ोन किया तो उन्होंने पहचान लिया और अपने घर पर रूकने का आमंत्रण दे दिया। अभी आगे गोवा भी जाना था इसलिए कम से कम पैसो में गुजरा करना था। मैं और राका बोरिया बिस्तर ले ताऊ की पास जा धमके. सांगा और नथू , लूका के पास जा कर रहने लगे।

मेरे लिए यह आखरी अवसर था और मैं इसे व्यर्थ नही करना चाहता था। हम दोनों ने रात देर तक होटल लीला के interview की तयारी करी और भोर की प्रतीक्षा करने लगे।


एक है अनार और सो है बीमार!! लड़के लड़कियों की भीड़ आई हुई थी वह पर। मुझसे कहा गया आपको मीठा व्यंजन बनाना होगा। मैंने शेफ कोट डाला और pastry डिपार्टमेन्ट जा कर अपने हुनर को अंजाम देने की कोशिश में लग गया। इतना घटिया बनाया की मुझे उस दिन ही ज्ञात हो गया था की चाहे सूरज पश्चिम से उग आए, मैं चुना नही जओंगा।

लीला वाले बड़े ही हरामी थे, पूरा दिन हमसे काम कराया और चाय के लिए भी नही पुछा।

दिन के तीन बज चुके थे और हमारे भूख के मारे बुरे हाल थे। हम लोग अँधेरी स्टेशन की तरफ़ चलने लगे, बीच में एक चाय की दुकान आई थो सोचा कुछ नाश्ता कर लिया जाए।

-भइया २ चाय और २ प्लेट पकोडे देना।
-पकोडे नही है।
-हैं, तो वो बहार टोकरी में क्या रखे हो?
- वो!। वो तो भजिया है।


मेरी जान में जान आई, हमने कहा - हा भाई वही, हम लोग इसे पकोडा बोलते है।

बॉम्बे का पडाव अपने अन्तिम चरण पर था, जॉब hunting के लिए अगला शहर tourism कैपिटल ऑफ़ इंडिया यानि की गोवा.............

Sunday, 21 June 2009

पाकिस्तान की जीत में धोनी को सन्देश


आखिरकार पाकिस्तान विजेता बन ही गया. यह एक ऐसा परिणाम है जिसकी काफी सारे लोगो को अपेक्षा नहीं थी. शायद ऐसा प्रतीत होता है की जैसे यही नियति थी. पिछली बार भारत ने पाकिस्तान को हरा कर यह कप जीता था और इस बार भारत की टीम प्रतियोगिता जीतने की प्रबल दावेदारों में से एक थी परन्तु कैप्टेन धोनी एवं टीम प्रभंदन के कुछ गलत फैसलों के कारण वो इश्वास को हकीकत में बदलने में असफल रहे.


पक्सितन की टीम का तरोताजा होना और यूनिस खान की कप्तानी का सही समय पर चलना उनके लिए सबसे भाग्यशाली साबित हुए. वही दूसरी तरफ भारत का जडेजा पर जरूरत से आताम्विश्वास घातक साबित हुआ. मेरे विचार में धोनी को युसूफ को उसी तरीके से प्रयोग में लाना चाहिए था जिस तरह अफरीदी को पाकिस्तान ने.
भारत की तरफ से एक और गलती यह हुई की टीम में स्ट्राइक बॉलर का न होना. अपने किसी भी मैच में भारत की टीम अपने प्रातिदवन्दियों को अल आउट करने में विफल रही है और पाकिस्तान के ३ गेंदबाज प्रतियोगिता के ३ सफलतम में से रहे. धोनी का ओझा को टीम से ड्राप करना सुरक्षात्मक निति का संकेत था और शायद इसी का खामियाजा भुगतना पड़ा.
अब तो यही आशा की जा सकती है की धोनी एवं टीम प्रभंधन अपनी गलतियों से सबक ले और अगले साल होने वाले कप की तयारी में जुट जाए.

Monday, 15 June 2009

भारतीय रेल -लखनऊ से बॉम्बे 1997



पुष्पक एक्सप्रेस platform संख्या १ पर खड़ी थी. लोगो की भीड़ से platform खचाखच भरा हुआ था. लखनऊ से बॉम्बे जाने के लिए ट्रेन छोटी लाइन के ही स्टेशन से चलती है. इसको छोटी लाइन कहने के पीछे भी एक कारण है वो यह की पहले पहल यहाँ सिर्फ meter gauge के पटरिया थी और सिर्फ छोटी गाडिया ही चली करती थी. गाड़ी के चलने का समय होने वाला था. राका, सांगा और मैं अपनी पहली नौकरी की खोज में बॉम्बे के लिए रवाना होने के लिए गाड़ी में अपना अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे. सपनो के साकार होने का शहर अर्थात बॉम्बे या फिर १९९२ के बाद का मुंबई, हमे बुला रहा था. platform पर omelete के स्टाल वाले गला फाड़ फाड़ के यात्रियों को अपने अपने ठेले की तरफ आकर्षित करने की कोशिश कर रहे थे. चूँकि मुझे शुरू से ही अंडे बेहद पसंद रहे है इसलिए इस से पहले पुष्पक एक्सप्रेस अपने गंतव्य के लिए प्रस्थान करती मैंने फटाफट 30 रुपैये दिए और तीनो दोस्तों के लिए ब्रेड अंडे का इन्तेजाम कर लाया.

मुझे रेल यात्राओ में बेहद आनंद आता है और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की यह मेरी एक हॉबी में से है. यात्रा शुरू होते ही मुझे खिड़की पर बैठना अनिवार्य है. ट्रेन का शहरं से बहार निकलना और धीरे धीरे सांझ के ढलते ढलते आबादी से वीराने की तरफ कदम बढ़ाना कही न कही हमारे अपने सफ़र की तरफ भी इंगित करता है. ट्रेन की पटरियों के साथ साथ चलती हुई वो गलियां, उनमे चलती हुई सायकलें और रिक्क्शें, अनपूते हुए मकान, उनके ऊपर लगे हुए टीवी के antennae ............. सारी तसवीरें मानों दीमाग की फोटोग्राफिक memory में कैद है.

ट्रेन ने धीमी रफ्तार छोड़ अब तेज रफ्तार पकड़ ली थी और खेतो को पीछे छोड़ती हुई सरपट आगे बाद रही थी. रात्रि की कालिमा अब धीरे धीरे बच्ची हुई रौशनी को अपना ग्रास बनाती जा रही थी. हम तीनो नीचे वाली बीरथ पर ही बैठे थे और बतिया रहे थे और ब्रेड अंडे का आनंद ले रहे थे, तभी वहा से चाय वाला निकला. ट्रेन में बैठो और चाय न पी जाये. भोजन के साथ साथ हम पानी ज्यादा और दूध कम चाय की चुस्किया लेने में जुट गए.

उन्नाव जंक्शन आ गया था और कुछ देर में गाडी गंगा मय्या को पार भारत के सबसे प्रदूषित शहर कानपुर में प्रविष्ट करने वाली थी. रात के नौ बजे के आसपास गाडी कानपुर पहुंचती थी और आधा घंटा रूकती थी. कानपूर से गाडी लगभग लगभग पूरी भर जाती थी. कुछ परिवार तो कुछ विद्यार्थी जोकि अपनी छुट्टियाँ ख़तम कर वापस पढने जा रहे हो या businessman वगेरह वगेरह अपनी अपनी सीटो पर विराजमान होने की जद्दोजहद में लगे हुए थे.



" भाईसाब, यह सीट आपकी है क्या?"
खाली करिए इसे!
टीटी को बुलाऊ क्या? देखिये मैं बड़े प्यार से कह रहा हूँ आप मेरी सीट खाली कर दी जिए!
अजी, बड़े बदतमीज़ इंसान है आप!
शायद आपको मालूम नहीं है, यह रिज़र्वेशन डब्बा है. यहाँ वेटिंग लिस्ट नहीं चलता है!

यह सारे संवाद आम है और मेरे ख्याल से हर यात्रा में आप को सुनाने को मिल जायेंगे.


कानपूर से सरकने के पश्चात निद्रा की गोदी में विलीन होने का समय आ गया था. सांगा ने ऊपर वाली, राका ने नीचे वाली और मुझे मिली बीच वाली बीरथ. मैंने पढने के लिए कुछ magazines ली थी, ,कान में वॉकमैन लगाया और पढ़ते पढ़ते सो गया. सुबह आँख खुली तो पौ फट चुकी थी और चाय वाले, अखबार वाले कोलाहल मचा रहे थे. अपनी सुबह newspaper पढ़े बगैर नहीं होती है इसलिए दैनिक जागरण की एक कॉपी ली और स्पोर्ट्स पन्ने पर नज़र घुमाई. गाड़ी भोपाल स्टेशन पर रुकी थी और सुबह की ठंडी ठंडी हवा चल रही थी. दोनों मित्रगन भी उठ गए थे और समय आ गया था की बीच वाली बीरथ फोल्ड करी जाए और बैठने और बतियाने का इन्तेजाम किया जाये. अभी पूरे १२ घंटे का सफ़र बाकी था. हमने गाड़ी से उत्तर के ज़रा माहोल का जायजा लिया ताकि कहने को तो हो - हा भाई हम भी भोपाल जा चुके है.


मध्य भारत में पटरियों का जाल अच्छा बीचा हुआ है और लगभग पूरा route इलैक्ट्रिक एंड डबल लाइन है, इसीलिए गाडिया इस क्षेत्र में अपनी पूरी स्पीड से चल सकती है. अब समय आ गया था रेल के दरवाज़े पर खड़े होने का और हवा खाने का. गाडी अपनी पूरी रफ़्तार पर थी और हम तीनो, दो एक दरवाज़े पर और सांगा दुसरे दरवाज़े पर खड़े हुए हवा से बतियाने का प्रयास कर रहे थे. मध्य भारत का भूगोल उतारी भारत से थोडा अलग है यहाँ पर हरियाली भी है और छोटे छोटे पठार भी है, इस दौरान गाडी काफी सुरंगों से भी होकर निकलती है और सर्प के तरह रेंगती हुई पर्वत श्रंखलाओं के मध्य से निकलती रहती है. चम्बल के डाकू यही कही आसपास पाए जाते थे।

गर्मी बढने लगी थी और पसीने छूटने लगे थे, ऊपर चलते हुए पंखे भी अब गरम हवा देने लगे थे. दोपहर के भोजन का वक़्त हो चला था, रेलवे कैटरिंग का नुमायन्दा आर्डर लेके जा रह था, हम लोगो ने भी तीन थालियाँ आर्डर कर दी. रेलवे कैटरिंग का खाना खाना भी अपने आप में एक अनुभव है और हर भारतीय इस से परिचित होगा. भक्षण के पश्चात हमने सोचा आराम किया जाये और ऊपर वाली बीरथ पर कूद कर पहुँच गए. बीरथ गरम हो चुकी थी और जैसी ही हम लेते हमरा मुह बीरथ के साथ चीपक गया (पसीने के कारण). हम भी दीठ थे इसलिए गर्मी की परवाह न करते हुए एक घंटे सो गए.

जब उठे तो गाड़ी के चक्कर लगाने का टाइम आ गया था, लम्बी यात्रा में यह अनिवार्य हो जाता है की देख कर आया जाये की बाकि डब्बो में कौन कौन बैठा है? और क्या कही आँखों के सेखे जाने का जुगाड़ है की नहीं? हम तीनो गाडी के टूर पर निकल गए......



" भाईसाब हमारे सामान का ध्यान रखियेगा हम जरा होके आते है." वापस आये तो गाड़ी में हिजडे धमाचौकडी मचाये हुए थे. हम लोग जैसे ही बैठे तो सांगा से पैसे मांगे तो वो कहता है की पांडू से लो, इस साले के पास बहुत माल है.



" हाय हाय, अरे मेरे सलमान खान, ला दस रुपैये दे दे!
सांगा बोला - तुम मुझे दस रुँपैये दे दो, जो बोलेगे मैं करूँगा
हाय हाय, हमारी तरह गाने गा कर सुनाएगा?
कौन सा गाना सुनना है?
सांगा ने अपना बेसुरा गला फाडा तो हिजडे ने भी तौबा कर ली और उसको दस का नोट पकडाने लगे, फजीहत होते देख सांगा ने पैंतरा बदला और मेरी तरफ़ वापस इशारा कर दिया। मैं बहुत खीज रहा था और काफ़ी गंभीर मुद्रा में आ चुका था.

वैसे हिजडों के साथ आप जिरह करो तो वो बदतमीजी पर उतर आते ही, पर सांगा काफी सुलझा हुआ लड़का था और वह उसकी बातो का बुरे नहीं मान रहे थे और काफी आराम से बात कर रहे थे. सांगा ने उनका रूख मेरी तरफ कर दिया और मुझे न चाह कर भी अपनी जेब ढीली करनी पड़ी.

शाम होने लगी थी और गाडी महाराष्ट्र दाखिल हो चुकी थी. फिर से नज़ारे बदल गए थे और यहाँ की गायो के सींग काफी लम्बे लम्बे थे. खेतो में फसल लहला रही थी. गाँव में ही असली भारत बसता है. किसानो की वैस्भुषा भी बदल चुकी थी और हर कोई गांधी टोपी पहना नज़र आ रह था. पुणे आ गया था और रिकॉर्ड बनाने की खातिर हमने प्लात्फोर्म पर उतर अपने कर्तव्य का निर्वाह कर दिया था।


फिर आया इगतपुरी, मतलब बॉम्बे का एंट्री पॉइंट. इगतपुरी स्टेशन पर बड़ी स्वाद कलेजी फ्राई मिलती है. यहाँ गाडी आधा घंटा रूकती थी, इसलिए हम लोगो ने पेट पूजा करी, और थोडी देर प्लात्फोर्म पर आवारागर्दी कर वापस अपनी अपनी जगह आ गए और कॉलेज के लड़कियों के बारे में विचार विमर्श करने लगे।





रात के सात बजे के आसपास हम बॉम्बे में दाखिल हो चुके थे। concrete जंगल और हर तरफ लोग ही लोग। हर तरफ अपार्टमेंट्स ही अपार्टमेंट्स नज़र आ रहे थे.

फिर दिखी लोकल ट्रेन और उसमे लटकते हुए और एक एक इंच पर खड़े हुए लोग। यह सब एक सपने के जैसा प्रतीत हो रह था, धीरे धीरे वो सारे नाम स्टेशन बोअर्ड्स पर लिखे दीख रहे थे, जिन्हें हम सिर्फ फिल्मो और टीवी में देखते हुए आये थे. ठाणे, कुर्ला, बांद्रा......

गाडी धीरे धीरे रेंगते हुए दादर स्टेशन पर रुकने जा रही थी, हम लोग अपना सामान बांध कर दरवाज़े की तरफ मुखातिब हो रहे थे। बॉम्बे में हमारे भविष्य के लिए क्या छुपा था बस इसकी कल्पना भर ही की थी......

पर अब असलियत को समझने और देखने का समय आ गया था।

लूका स्टेशन पर खडा हमारा वेट कर रह था..............

जारी....

Sunday, 14 June 2009

चक दे इंडिया (महिला क्रिकेट)

आजकल इंग्लैंड में महिला क्रिकेट का आयोजन चल रह हैऐसा पहली बार हो रहा है की पुरुषों और महिला प्रतिस्पर्धा साथ साथ आयोजित की गयी हैहमारा समाज चाहे वो पश्चिम या पूरब हो, खेल प्रतिस्पर्धाओं में अभी भी पुरूष प्रधानता का डंका बजता हैइक्के दुक्के क्रीडाओं को छोड़ दिया जाए तो महिला एवं पुरूष खेलो के प्रचार और प्रसारण में जमीन आसमान का अन्तर हैपरन्तु अब ऐसा प्रतीत होने लगा है की अब समय गया है इस भ्रान्ति और पक्षपात पूर्ण रवैये को दूर करने काइसी के चलते हमारी मित्र मंडली ने यह निश्चय किया की १३ जून को होने वाले भारत पाकिस्तान के मुकाबले में महिलाओं का हौंसला बढ़ाने के लिए हम taunton जायेंगे


विश्व कप के इतिहास में अब तक पाकिस्तान भारत को हराने में असफल रहा है और पाकिस्तान के टीम अपना पहला मैच श्री लंका से हार भी चुकी हैभारत भी अपना पहला मैच इंग्लैंड से १० विकेट से हार गया थे, परन्तु भारतीय क्रिकेट टीम में जुझारू खिलाड़ी है और झूलन गोस्वामी इस समय की सबसे तेज गेंदबाज मानि जाती हैमिताली राज के नाम टेस्ट मैच में दोहरा शतक लगाने का कीर्तिमान है और अंजुम चोपडा अपने तकनिकी सुदृढ़ता के लिए जानी जाती है और उनकी तुलना डेविड गोवेर से की जाती है


मैच की शुरुआत में ही भारत ने पाकिस्तान पर अपना दबदबा बना लिया और उनके पाँच विकेट सस्ते में निकाल दियाप्रियंका रोय ने शानडर
बोलिंग करते हुए पाकिस्तान के पांच विकेट निकाल कर पूरी टीम को सिर्फ ७५ रनों पर आउट कर दिया. भारत की बल्लेबाजी की शुरुआत अच्छी नहीं हुई और पूनम राउर पहले ही ओवर में रन आउट हो गयी. भारत ने भी अपने पहले ३ विकेट सस्ते में गँवा दिए परन्तु उसके पश्चात अंजुम चोपडा ने एक जिम्मेदार पारी खेलते हुए भारतीय टीम यानि की चक दे गिर्ल्स की नय्या पार लगाये और सेमी finals तक पहुँचने का रास्ता सरल बना दिया.

महिला क्रिकेट धीरे धीरे प्रसिद्दि प्राप्त कर रह है और वो दिन दूर नहीं, जब महिलाओं के मुकाबले भी उतने ही चाव से देखे जायेंगे जैसे की पुरुष क्रिकेट के.

Sunday, 17 May 2009

is it beginning of the end of nadal's regime

just checked BBC and came across a very good piece of news. king federer has beaten nadal in straight sets and astonishingly on a clay court. although nadal has been getting federer most of the times since his early losses to him but often he just sneaked win from the jaws of the defeat.

i have been an ardent fan of support of federer throughout, the reason is he is such a calm and composed player and never shows off, plus his shots are skillful rather than power. another reason is that i never liked pete sampras and federer was the one to end his reign.

at the same time, if we look from entertainment point of view, their rivalary has benefited the support and these 2 players have produced one of the fiercely contested matches in the recent past। i am sure that this win will give federer lots of confidence in overcoming the barrier of not beating nadal in previous 15 or so matches. in the last year wimbledon, federer was close to beating nadal but nadal pulled it out from the skin of his teeth.
one of my friend told me that john macnroe offered federer advice on how to beat nadal. i have watched few of nadal and federer's recent matches and i feel the nadal was getting a psychological edge over federer. in the wimbledon final, nadal played like a super human, esp in the later parts of the match. there were 2 or 3 returns in the end games which virtually seemed impossible but nadal made them. that basically broke federer's will and susbsequently losing that match. i presume that king has sorted him out and would return to his no 1 status again.


lets hope that federer will be able to continue his good form to french open and then on to wimbledon. hail the king- federer.

Saturday, 16 May 2009

एक परिचय मेरे दोस्तों का


कॉलेज के दिन भुलाये नही भूलते है, मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है। मेरे ज्येस्थ भ्राता श्री का कहना है की मुझे राका के सिवा दूसरा कोई किरदार नही मिलता है क्या? पर में क्या करू, राका कैरेक्टर ही इतना दिलचस्प है की उसके किस्से ख़तम ही नही होते है। वैसे आज जब में सोचने बैठा तो मैंने गौर किया, वाक़ई हमारे आस पास कई सारे पात्र होते है जो हमारे साथ खुशिया बाटते है, हम्हे गुदगुदाते है, हमारा हौसला बढाते है और blah blah blah ........

ihm के तीन सालो में भी मेरी मित्रता ऐसे ही कुछ लड़को से हुई जिनका में विस्तार से वर्णन करना कहूंगा।

पहला साल तो बहुत तेजी से निकल गया, दूसरे सत्र के शुरू में मेरी दोस्ती हुई सांगा नाम के लड़के से, हम दोनों को अपनी industrial ट्रेनिंग करने के लिए ताज महल होटल में काम मिला था।


सांगा का पूरा नाम राजीव सांगा था और वह अच्छी कद काठी एवं आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था। साथ ही साथ एक प्रफ्फुलित ह्रदय और जिंदगी को हलके फुल्के ढंग से लेने वालो में था। यह एक ऐसा लड़का था जो किसी भी महफिल या जमघट में अपने होने का एहसास आराम से करा लेता था, और सबसे जरूरी बात, कन्याये इनसे बहुत प्रभावित रहती थी और मधुमखी की जैसे शहद के चारो और मंडरायी रहती थी। इनका mission या motto था की जिस लड़की पर उँगली रख दू वो मेरी हो जाती है। ज्यादा महत्वाकांक्षी नही थे और पढ़ाई भी जितनी मतलब की हो उतनी ही करते थे। एक और महरत जो इन्हे हासिल थी वो यह की लखनऊ के चप्पे चप्पे का इन्हें ज्ञान था और कहाँ पर सबसे लज़ीज़ कबाब, छोले बठुरे, कचोरियाँ, कुल्फी या बिरयानी मिलती है, पूरी जानकारी yellow pages में with google maps फीड थी.

राका उर्फ़ राकेश तिवारी बहुत ही छरहरी सी कद काठी का स्वामी था पर don गिरी में किस से कम नहीं था। इसके पास एक हरे रंग का प्रिया स्कूटर हुआ करता था। यह आपको हमेशा कॉलेज के गेट के बहार चाय की तपड्डी पर ही बैठा मिला करता था। इनका लाइफ में motto था सब हो जाएगा एवं सब चलता है । महत्वाकांक्षा क्या होती है उस से इनका कोई सारोकार नहीं था। इनका ध्यान सिर्फ़ लड़कियां देखने yani ki laundiyabaaji और उनको छेड़ने में लगा रहता था। हम दोनों एक साथ ही कॉलेज आते थे और चूँकि मेरे पास स्कूटर नहीं था इसलिए मेरा आना जाना इन्ही पर निर्भर करता था। सुबह सुबह यह मुझे लेने आते थे और रोज़ इनका एक ही dialogue होता था चलो पांडू अब अपनी टिका लियो (मतलब पीछे बैठ जाओ)। पढ़ाई से इनका दूर दूर का नाता नहीं था और क्लास्सेस में आना यह अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते थे। और अगर गलती से क्लास में आ भी गए थो शिक्षको को परेशान करना इनका पहला उदद्शय होता था।

लूका उर्फ़ रजत सिंह रईस बाप की बिगड़ी औलाद की उपमा पर फिट बैठते थे । अलीगंज के teacher इन्हें स्कूल का नाम रोशन करने का जिम्मेवार बताते थे। मेरे सुनाने में आया था की इन्होने अपने स्कूल में खूब मार कुटाई करी थी और इनको भी एक बार तारो पे लिटा लिटा kar धुना गया था। कॉलेज में लूका allrounder था, भले ही पढ़ाई में पूरी रूचि न हो लेकिंग परीक्षा के दिनों में जाग जाग कर पढ़ाई करता था। क्रिकेट का बेहतरीन खिलाडी और गोविंदा के गानों की धुनों पे डांस करने वाला बेहद ही प्रतिभावान छोरा था। अत्यन्त महत्वाकांक्षी और जुगाड़ वाला था, और surprise surprise........ थुलथुले शरीर का होने और अपनी कुख्यात छवि के बावजूद लड़कियों में पोपुलर था। मुझे आज तक समझ नही आया की लड़कियों को इसमे क्या भाता था।
एक बार मैंने इसकी बहुतो में से एक girlफ्रेंड से पुछा भी........ यह बताओ आखिर तुमने लूका में ऐसा क्या देखा?
वह बोली......... मुझे weird लड़के पसंद है। ( मेरी शंका का समाधान हो गया था)


नथू उर्फ़ नवीन नाथ उर्फ़ कायस्थ का बच्चा कभी सच्चा, सच्चा हो तो गधे का बच्चा। इनका शुम्मार भी मेरे करिरबी मित्रो में होता था और जब भी combined study होती थी तो जमावाडा इन्ही के घर पर होता था। वैसे यह funda है बहुत जबरदस्त, सारे साल पडो मत और exam से पहले लड़के एक जगह जमा हो कर अध्यन करते थे। अध्यन तो क्या bc ज्यादा करते थे। नथू शातिर और बहुत ही नाप तौल के कदम रखने वालो में से एक था। to him everything had to be analysed in terms of profit and loss, till date he is the same.


कुक्कू के बारे में तो पहले एक ब्लॉग में विवरण दे चुका हूँ। chracters और भी थे लेकिन लिखने बैठा तो शायाद एक किताब लिख डालू।

अपने बारे में लिखने की तुक बनती नही है, मुझे ऐसा लगता है जिन सब के बारे में मैंने लिखा है यही लोग मेरे बारे में व्याख्यान कर देंगे। आगे इन परिचयों को लेकर कुछ और कहानी और किस्सों का ताना बना बुनने का प्रयास करूंगा।

Friday, 15 May 2009

IPL का बुखार

हमारे नविन तोगडिया साब को सचिन तेंदुलकर से allergy है। उसका कारण शायद यह है की एक बार वह मुंबई गए थे और लोकल ट्रेन में उन्हें सचिन मिला और सचिन ने उन्हें बैठने के लिए जगह नही दी। तोगडिया साब का एक ही एजेंडा है की सचिन की ली जाए, उन्हें और खिलाडी क्या कर रहे है, इस से कोई मतलब नहीं होता है। इनका भी modus operandi बड़ा ही सीधा और सरल है। यह तब कुछ नही कहते है जब सचिन की टीम जीतती है पर जहाँ टीम हारी, वहां सचिन की वाट लगा दी जाती है।

तोगडिया जी का कहना है की सचिन choker है और तनाव की स्तिथि में खेल नहीं पाता है। अगर एक खिलाडी लगातार अच्छा खेलता रहे और कभी तनाव में न आए और हमेशा रन बनता रहे, मेरे हिसाब से तो यह सम्भव ही नहीं है। कौन चोक नहीं करता है, क्या पोंटिंग चोक नहीं हुआ, जब स्टीव वॉघ अपने last frontier पर था तो पोंटिंग बुरी तरीके से असफल रह था और पाँच बार भज्जी का शिकार बना था। आप किसी भी खिलाड़ी को ले और हर कोई तनाव का शिकार होता है, मुद्दा यह है की तोगडिया जी की आलोचना पूर्णत एकतरफा है। युराज सिंह ने पिछले t20 में बेहतरीन प्रदर्शन किया था लेकिन इस tournament में कुछ matches में वो भी चोक कर गया। chennai के साथ के मैच में shane warne ने shane harwood को bowling दे कर गलती करी और वो मैच हार गए, पर मुंबई की साथ मैच में warne सचिन पर हावी रहे और उसे out करने में भी सफल भी रहे। warne भी एक legend है और सचिन और warne में से एक ही खिलाड़ी की जीत सम्भव थी।

मुझे तो t20 game बहुत अच्छा लग रह है, इस में रोमांच है और खिलाड़ी हमेशा रन बनाने की सोचते है, game high tempo है और एक captain पर बहुत निर्भर करता है की टीम कैसा प्रदर्शन करेगी ।

चलिए एक नज़र डालते है, teams और उनके captians पर।
मेरी पसंदीदा टीम है दिल्ली, उसका कारण है ashish nehra, क्रिकेट जगत में अपने नरम सवभाव के लिए जाने वाले नेहरा साब दिल्ली की मधुर भाषा का प्रयोग करने में नहीं चुंकते है, इन्ही के देखा देखी दिल्ली के सारे bowlers नियम से जब भी किसी खिलाड़ी को आउट करते है तो उसको banjo बोल कर विदा करते है। नेहरा साब की मधुर भाषा का नमूना youtube में उपलब्ध है। पिछले मैच में रजत भाटिया को सिटी moment ऑफ़ success (banjo) चार बार bolne के लिए मन ऑफ़ दे मैच दिया गया था।

मेरी दूसरी fav टीम है knight riders, वो इसलिए की fakeiplplayer इनकी टीम का सदस्य है। यह जीतने के लिए खेलते ही नहीं है और इन पर मैच fixing का आरोप भी है। आईआईएम वालो ने इनसे अनुमति ली है की अगर वे लोग knight riders का केस अपने अपने संसथान में पढ़ा सकते है - फॉर the worst managed टीम

मुंबई इन्दिअन्स मुझे इसलिए पसंद है की क्योंकि मेरे पसंदीदा सचिन जी इस टीम के कैप्टेन है। और दूसरा कारण की इस टीम में कोई आस्ट्रेलियन नही है।

इसके बाद पंजाब , और मेरे पसंदीदा कलाकार माफ़ कीजियेगा खिलाड़ी संथाकुमार श्रीसंथ इसी टीम में खलेते है। मुझे इस बात का बहुत अचम्भा होता की कोई आदमी मार खाने के बाद भी क्यों नही सुधरता है। ऐसा लगता है युवराज और श्रीसंथ की घनिस्थ मित्रता है, तभी इतनी पिटाई होने के बावजूद भी team में बने हुए है। सबसे खेद की बात तो यह है की इनकी पिटाई हेडेन और सयमोंड्स ने करी।

shane warne युवा भारतीय खिलाड़ियों के लिए वरदान saabit हो रहे है, कोलकत्ता वालो को इनसे सीखना चाहिए की युवाओ की प्रतिभा को कैसे निखारा जाता है।कल एक commentator कह रह था की यहाँ पर कोई मैच विन्नेर नही है और सारे matches last over में ही जीते गए है। इसमे shane warne की ही दाद देनी पड़ेगी पर टीम में कुछ आधारभूत खामिया है। खासकर जब यह दूसरी बार बैटिंग करने आते है।

deccan में मुझे adam gilchrist ही पसंद है और अब तक के प्रदर्शन से यह जाहिर है की टीम ने खूब अभ्यास और महनत करी है। इस टीम में भी भारत के लिए युवा सितारे तेयार हो रहे है। पर में नहीं कहूंगा की यह जीते क्योंकि symonds इस टीम के लिए खेलता है और कोई भी टीम जिस में symonds हो उसे support करना एक हिन्दुस्तानी के लिए पाप है।

बंगलोर tournament की सबसे ज्यादा unprdictable टीम में से है, यह बड़े अन्तर से मैच हारते है पर सारी मजबूत टीम को इन लोगो ने हराया है। इस टीम के जीतने के चांसेस इसलिये भी कम है क्योंकि यह सिर्फ़ तीन या चार बल्लेबाजो के साथ खेल रहे है। कुछ baggage इस टीम के साथ चल रहा है।

chennai सबसे संतुलित टीम लग रही है पर तोगडिया साब के हिसाब से यह भी choker है क्योंकि chase करने में इनका रिकॉर्ड अच्छा नहीं है। पर अगर यह पहले batting करते है तो सबसे ज्यादा विस्फोटक बल्लेबाजी इसी टीम के पास ही है। धोनी, दादा का सही मायने में उतराधिकारी है पर इस टीम को नापसंद करने की वजह एक ही है matthew hayden.





Monday, 11 May 2009

थप्पड़ की गूँज



In the college days (IHM), as part of our curriculum we were all suppose to undergo summer training. Basically it meant that you can go work in a hotel with little stipend money and hotel will give you to stay for free. It was a win win situation for students. Although the money was never good but it was a good and cheap way to see exotic locations.

This training was available after passing 2nd year of IHM curriculum during summer holidays. Some of the boys went to Manali, few went to Mussorie and the trio of us me, Raka and Sanga  went to the summer capital of pre-independence India the beautiful, beautiful, panoramic, queen of hills NAINITAAL.

 We went to the Arif Castles in Lucknow and negotiated our training details with Mr Dixit, he was some sort of VP in the company.At first he told us no and said that they have stopped hiring summer trainees.Our luck was going strong and Sanga whose father was posted at Nainitaal at that time, pulled few strings and they okayed us for one month of summer training.

Sanga had gone before  myself and Raka. We set off from Lucknow in a UP roadways bus. It was an overnight journey. When we reached, we got warm reception and were told that Sanga's dad is a strict person and we should behave in front of him. I was always scared of Sanga's dad and never came out in front of him for 2 days we stayed at his house

As Arif Castles was situated on the Malli Taal, we were provided with the accommodation next to the hotel only. It was a house just behind the hotel and had 2 rooms in it. There were already 4 boys staying in there before we 3 moved in. The other guys were from Bangalore.

Initially we did not get along well as they were trying to be superiorand throw attitude to us.. After settling down we went to the hotel and we saw that there were 3 more guys working as summer trainees and one was Rohit Shah from our college and he was talking in a very different tone. Rohit used to be one of the most decent guys in our college but here, in the canteen of the hotel, he was showering abuses and swearing left, right and centre.
I went to him and asked him, " what is wrong with you".
  He said,"he is Rahul, twin brother of Rohit." 

As lazy by nature, we were least interested in the training and always thinking of getting off of the work and doing masti. In the house, there was this lad from Jammu and his name was Ankush. He was a big FATTAL and on our first day when we all were trying to break the ice.
  He said," You know there is a bhoot in the house and at night, we always hear the squeaky noise and someone walking outside the windows."
Then only I relaised  that this guy has shot himself in his foot. Knowing Raka and Sanga very well, I kind of guessed that there was something brewing in their destructive minds. A conspiracy was hatched and a plan was made.

First phase was to build up the myth of this bhoot.  We used to have chappal wars before going to sleep amongst Bangalore and Lucknow. But, that night as per the master plan, everyone went to sleep before scheduled time. Basically, all the other boys used to go to sleep anyway, it was us three and Kapil, Ranvir from Bangalore who used to create rucus and fight. Once everybody had gone to sleep, Raka and Sanga got up and covered themselves in a white bed sheet and went outside the window. There they started making funny noises. There was no candle so Raka started to turn off and turn on his lighter. The guy gave no reaction. I was finding it difficult to control my laugh.


Next morning, we were called by the personnel department and I thought that now we are going to get caught. But, the personnel manager told us that they have heard something about this bhoot and all, what do we know about it? We said there is nothing like that. Hence we came to know that the guy almost shitted in his pants and the legend of bhoot was created forever.



Sanga was sort of guy who never took any nonsense from anyone. Once, he was taking this room service tray to Mr Dixit's room and the trainee from Bhubaneshwar, who was working at reception, laughed at him. That infuriated Sanga and he vowed to take revenge against him.

On the same day when we went for lunch, I followed Sanga and that guy was there, Sanga threw a glass of cold water on him and before he could have realised what was going on, he got the thrashing of his life. I was the witness of that event and the matter was brought to the personnel. Although, I did not agree with what Sanga had done  but I didn't divulge any details. Sanga was asked to leave the job with immediate effect. Being part of the trilogy, we also said INQILAAB ZINDABAAD and quit the

training.

We still had another 15 days to go and Sanga did not want her parents to come to know about this fiasco. We kept on staying at the same house. Our routine was to go for the breakfast at one chai shop outside the house, then we will come back and will play cricket in that small corridor all day. Myself and Raka were a team and Sanga was with Ranvir from Bangalore.
Sanga was a sore looser and always won the games by hook or crook (ro ro ke). But soon, hotel came to know about our unofficial stay and we were asked to leave.

Then, the real party started, we had all the time in the world. The weather was fantastic, sun used to shine brightly and the nights were colder but vibrant. Nainital was packed with tourists and there was plenty of eye tonic available on the Maal road.

We came back to the the den (Mr Sanga's house). I kept staying in the room, only came out when Mr Sanga was not around. One day we decided to track to Bhimtal, which was like 25 kms by road but there was a track of 5 km or so. Neeraj chacha, who was a very good friend of mine and lived in Nainital. He also joined us in the pursuit of the tranquility. Four of us, started from Naintal in the morning  towards Bhimtaal. It was  a beautiful day, air was fresh, trees were green and water streams were flowing relentlessly next to the kaccha path.

We reached Bhimtal around midday. It was getting slightly hotter by then. As soon as I saw the lake my heart started to itch for a swim. I proposed it to Sanga and we both decided to take a swim in the lake in our undies only as we were not carrying the costumes ( I do not remember that when I wore a costume while swimming in India).

Bhimtal has an island close to the western bank of the lake and the distance from the bank to the island must be around 25m. We decided to swim to the island. It started as a race but Sanga being a better swimmer overtook me easily. When he reached the island he said," Pandey, we have to swim back as there are lots of plants in here and its difficult to swim."

I panicked as I had already spent most of my energy swimming to the Island.
I said,"I can't swim anymore."
Sanga offered to piggy back on him, when I did that, I caught his undies and he went in the water and drank some.
He panicked as well, he kicked me and left me in the water and swam himself to the safety.

I was totally exhausted and started to imagine about drowning in that lake. But, life is precious. I gathered all my strength and started to swim again. I was exasperating but I had no choice. I swam till I also reached safety. I was completely out of breath, Raka was happy that I had  rescued myself. Because all this time he was thinking of that how he is going to  inform my mother and what trouble he will have to face to get my body recovered from the lake.

All that ends well is good, I survived but learnt a lesson, never tread in unknown waters, no matter how tempting it feels.

to be continued.........




Tuesday, 5 May 2009

भोकाल टाइट है


पहली बार यह वाक्य मैंने तब सुना जब मेरे शुभ चरण लखनऊ में पधारे। बात तब की है जब मैं होटल मैनेजमेंट पढने के लिए लखनऊ में निवास कर रहा था।

कॉलेज से पहले की शिक्षा दीक्षा एक छोटे से शहर उधमपुर में हुई थी और लखनऊ में आना बिल्कुल वैसे ही था जैसे की एक कूप मंडूक का तालाब में पहुँच जाना। परन्तु धीरे धीरे एक जैसी मानसिकता वाले लड़को से मित्रता होती रही और सेहर अपना सा लगने लगा। चूँकि, लखनऊ का अपना एक गौरवमय इतिहास और धरोहर रही है इसलिए संस्कृतक दृष्टिकोण से शहर का अपना ही अंदाज़ है, और यह रोज़मर्रा की बातो और ताकियाकलामो में साफ़ साफ़ दिखाई देता है। राका ने मुझे आज तक तू कह कर नही पुकारा और हमेशा तुम कह कर ही सम्बोधित किया है।

उन्ही शुरआती दिनों में, एक दिन बातो बातो में हमारे एक प्रिय मित्र रौतेला बोले," गुरु, तुम्हारा तो भोकाल टाइट है। "
मैंने कही भाई, इसका मतलब क्या हुआ?
तो जवाब मिला मतलब तो नही मालूम पर एक्स्पलिन जरूर कर सकते हैं।
भोकाल टाइट का मतलब है , " व्यवस्था मज़बूत है "।
मैंने कहाँ- हैं? अब इसका मतलब क्या हुआ? तो जवाब आया," राजनीति का ज्ञान रखते हो"?
मैंने कहा," रोज़ सुबह नवभारत पढता हूँ और पहले पन्ने से लेकर अन्तिम पन्ने तक चाट जाता हूँ."
jतो गोबर गनेश, फॉर example, " आजकल लखनऊ में मुलायम का भोकाल टाइट है" ( उन दिनों मुलायम ही का था, मायावती का बाद में हुआ ).

मेरे मस्तिषक में रौतेला जी के यह बात पत्थर की लकीर की तरह हमेशा हमेशा के लिए अंकित हो गई। कॉलेज के दूसरे साल में मेरी मित्रता हुई, मेरे सबसे परम मित्र राकेश तिवारी उर्फ़ राका से,मरियल सा होता था परन्तु कॉलेज में उसका भोकाल जरूर टाइट था। शायद इसीलिए वह अपने आप को राका कहलवाना पसंद करता था । पर मुझे क्या, मेरे ऊपर तो राका जी की छत्रछाया थी।


राका, सांगा, लूका एवं नाथू कॉलेज की अनधिकृत कार्यकारिणी के अधिकारीयों में से थे, कॉलेज की सारी पार्टियों को कराने का जिम्मा इन्ही का हुआ करता था।पार्टियां कराने का modus operandi बड़ा ही सीधा और सपाट था. आयोजन समिति यह तय कर लेती थी की वैलेंटाइन डे आ रहा है और उस पर पार्टी का आयोजन करवाना अनिवार्य है. अब भैया पार्टी होगी तो पैसे भी खर्च होंगे और उसके लिए सब लोगो से चंदा लेना होगा.

अक्सर चंदा अपनी इच्छा अनुसार दे सकते है पर कार्यकारिणी का भोकाल टाइट था इसलिए चंदा देना अनिवार्य था. चंदा न देने की स्तीथि में आप को टिका कर दिया भी जा सकता था. इस अनिवार्य चंदे को ना देने वाले में चंद लोग ही शामिल थे जैसे की कुक्कू उर्फ़ संदीप कुकरेती, लाला उर्फ़ विवेक श्रीवास्तव एंड बोक्सेर उर्फ़ विपिन कौशल. इसी के चलते कुक्कू जी भी कार्य समिति में शामिल कर लिए गए थे. कार्यसमिति सिर्फ ७५ प्रतिशत ही आयोजन में लगाती थी और बाकि बचा २५ खुद खा जाती थी.

कुक्कू दिखने में हट्टा कट्टा था और लखनऊ उनिवेरसिटी में भी अध्यनरत था. पिछले साल की गर्मियों में मिस्टर नैनीताल भी रह चुका था. कुक्कू और मेरे में कभी भी घनिष्ठता नहीं रही और मुझे वो हमेशा से ही कांचू किस्म का व्यक्ति लगा. एक बार कॉलेज खत्म होने के बाद
कुक्कू बोला - अरे भाई, हम इंदिरा नगर जा रहे अगर तुम चाहो तो तुम्हे ड्राप कर देंगे,
मैंने कहि - नेकी और पूछ पूछ.
जब हम मुंशी पुलिया पहुंचे तो कुक्कू कहिस - का भैया भेजा fry खाओगे?
मैं आश्चर्यचकित हो गया और सोचने लगा कि यह आज उलटी गंगा कैसे बह रही है.
मैंने भेजा fry तो खा लिया पर हजम नहीं हुआ.
घर पहुँच के मैंने सांगा को फ़ोन लगाया और उसे यह सारा वाक़या बयान किया.
सारा कुछ सुनाने के बाद सांगा बोला - पांडे, तू टेंशन ना ले, कुक्कू में कोई बदलाव नहीं आया, यह सब वैलेंटाइन डे पार्टी का कमाल है.

Monday, 6 April 2009

बड़े होके क्या बनोगे बेटा?


हमारे भारतीय परिवेश में यह सवाल आम है हमें बचपन में बार बार पूछा जाता है कि बेटा, बड़े होके तुम क्या बनना चाहोगे? हम दो भाई और एक बहिन है, छोटे मैं पापा मुझे प्यार से गधा, दद्दा को कंचुआ और दीदी को भी बिगडे हुए नाम से पुकारते थे उन्होंने कभी भी किसी को सही नाम से नहीं पुकारा, वही गुण मुझ में भी है मैं भी अपना काफी आलतू फालतू वक्त लोगो के नाम बिगाड़ने में निकालता हूँ। मेरा एक मित्र है, साउथ इंडिया से है और उसका नाम है चेरियन मूकेंचेरी जिसों बिगाड़ के मैंने उनका पुन् नामकरण कर दिया- चेरियन मखन चेरियन वैसे अगर example देखने जायेंगे तो हजारों है


चलिए मतलब की बात पर आते हैं, हमारे बड़े भइया जिन्हें हम दद्दा कर के संबोधित करते थे हम से साल बड़े है, लेकिन उन्होंने इसका फायदा
नहीं उठाया, कभी हमे मारा नहीं और हड़काया नहीं उनसे जब बचपन में यह सवाल किया जाता था उनका जवाब होता था की मैं तो scientist बनूँगा। एक बार स्कूल मे माचिस से कैसे टेलीफोन बन सकता है, फट से उन्होंने बना दिया उसका एक
working मॉडल  । एक बार हम गर्मियों की छुट्टियों में हरिद्वार गए तो दद्दा उन दिनों इलेक्ट्रो मग्नेट बनाने के लिए एक्सपेरिमेंट पे एक्सपेरिमेंट किए जा रिया था।  दद्दा हमारे सारे रिश्तेदारों मैं साइंटिस्ट के नाम से ही जाना जाताकनखल ( हरिद्वार) में हमारे घर से थोडी ही दूरी पर गंगा जी बहती थी।  जैसे नेहरू जी को प्रयाग की गंगा जी से लगाव था उसी प्रकार हम पांडे बंधुओ को कनखल की गंगा जी से था और अभी भी हैं



इसके बाद बारी आई हमारी प्रिय बहिन मीना पांडे की, उनसे अगर कोई ये सवाल करता था तो उनका जवाब होता था -" मैं तो हेमा मालिनी बनूगी " नृत्य कला मैं निपुण , हिन्दी फिल्मो और गानों कि बेहद शौकीन, उनका ध्यान पढ़ाई में कम और गोविंदा कि फिल्मो मैं ज्यादा रहता था हमारे पहाडी समाज का कोई भी कार्यक्रम हो उस में हमारी प्रिया बहना का भी एक आइटम होता था पूरे पहाड़ी समाज हमारी बहना एक अच्छी नृत्यांगना के रूप प्रसिद थी


अब आए बारी हमारी, हमसे कोई पूछे, तो हमारा जवाब होता था कि मैं तो देश का प्रधानमत्री बनूँगा छुतपन से ही हमारे funde सीधे और सपाट थे हमे चाहिए थी सत्ता राजनीति में हमारी दिलचस्पी शुरू से ही थी। जब पहली बार लोकसभा चुनाव सीधे प्रसारित हुए थे, तब मैं १० साल का था, तब आज कि तरह चरणों में मतदान नहीं हुआ करता था बल्कि - दिन म  पूरी चुनावी प्रक्रिया पूरी


जब स्कूल में पढ़ रहा था, दसवी कक्षा मैं तो, हमारे स्कूल में यूथ पार्लियामेन्ट आई, मुझे उसमे प्रधानमंत्री तो नहीं अपितु विपक्षी नेता बनाये गया, मैं खुश था क्योंकि उन दिनों अटल जी विपक्ष में थे मैंने गजब की पेर्फोरामंस दी और सारे सदस्यों में मेरे कृत्य को बहुत सराहा गया




वो दिन थे और आज है, हमारे बड़े भइया प्रोफ़ेसर है, दीदी शिक्षिका और मैं paak shashtri.

There is more to write but google translation is givine me headache. To be continued


































WELCOME

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Thanks