Monday 15 June 2009

भारतीय रेल -लखनऊ से बॉम्बे 1997



पुष्पक एक्सप्रेस platform संख्या १ पर खड़ी थी. लोगो की भीड़ से platform खचाखच भरा हुआ था. लखनऊ से बॉम्बे जाने के लिए ट्रेन छोटी लाइन के ही स्टेशन से चलती है. इसको छोटी लाइन कहने के पीछे भी एक कारण है वो यह की पहले पहल यहाँ सिर्फ meter gauge के पटरिया थी और सिर्फ छोटी गाडिया ही चली करती थी. गाड़ी के चलने का समय होने वाला था. राका, सांगा और मैं अपनी पहली नौकरी की खोज में बॉम्बे के लिए रवाना होने के लिए गाड़ी में अपना अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे. सपनो के साकार होने का शहर अर्थात बॉम्बे या फिर १९९२ के बाद का मुंबई, हमे बुला रहा था. platform पर omelete के स्टाल वाले गला फाड़ फाड़ के यात्रियों को अपने अपने ठेले की तरफ आकर्षित करने की कोशिश कर रहे थे. चूँकि मुझे शुरू से ही अंडे बेहद पसंद रहे है इसलिए इस से पहले पुष्पक एक्सप्रेस अपने गंतव्य के लिए प्रस्थान करती मैंने फटाफट 30 रुपैये दिए और तीनो दोस्तों के लिए ब्रेड अंडे का इन्तेजाम कर लाया.

मुझे रेल यात्राओ में बेहद आनंद आता है और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की यह मेरी एक हॉबी में से है. यात्रा शुरू होते ही मुझे खिड़की पर बैठना अनिवार्य है. ट्रेन का शहरं से बहार निकलना और धीरे धीरे सांझ के ढलते ढलते आबादी से वीराने की तरफ कदम बढ़ाना कही न कही हमारे अपने सफ़र की तरफ भी इंगित करता है. ट्रेन की पटरियों के साथ साथ चलती हुई वो गलियां, उनमे चलती हुई सायकलें और रिक्क्शें, अनपूते हुए मकान, उनके ऊपर लगे हुए टीवी के antennae ............. सारी तसवीरें मानों दीमाग की फोटोग्राफिक memory में कैद है.

ट्रेन ने धीमी रफ्तार छोड़ अब तेज रफ्तार पकड़ ली थी और खेतो को पीछे छोड़ती हुई सरपट आगे बाद रही थी. रात्रि की कालिमा अब धीरे धीरे बच्ची हुई रौशनी को अपना ग्रास बनाती जा रही थी. हम तीनो नीचे वाली बीरथ पर ही बैठे थे और बतिया रहे थे और ब्रेड अंडे का आनंद ले रहे थे, तभी वहा से चाय वाला निकला. ट्रेन में बैठो और चाय न पी जाये. भोजन के साथ साथ हम पानी ज्यादा और दूध कम चाय की चुस्किया लेने में जुट गए.

उन्नाव जंक्शन आ गया था और कुछ देर में गाडी गंगा मय्या को पार भारत के सबसे प्रदूषित शहर कानपुर में प्रविष्ट करने वाली थी. रात के नौ बजे के आसपास गाडी कानपुर पहुंचती थी और आधा घंटा रूकती थी. कानपूर से गाडी लगभग लगभग पूरी भर जाती थी. कुछ परिवार तो कुछ विद्यार्थी जोकि अपनी छुट्टियाँ ख़तम कर वापस पढने जा रहे हो या businessman वगेरह वगेरह अपनी अपनी सीटो पर विराजमान होने की जद्दोजहद में लगे हुए थे.



" भाईसाब, यह सीट आपकी है क्या?"
खाली करिए इसे!
टीटी को बुलाऊ क्या? देखिये मैं बड़े प्यार से कह रहा हूँ आप मेरी सीट खाली कर दी जिए!
अजी, बड़े बदतमीज़ इंसान है आप!
शायद आपको मालूम नहीं है, यह रिज़र्वेशन डब्बा है. यहाँ वेटिंग लिस्ट नहीं चलता है!

यह सारे संवाद आम है और मेरे ख्याल से हर यात्रा में आप को सुनाने को मिल जायेंगे.


कानपूर से सरकने के पश्चात निद्रा की गोदी में विलीन होने का समय आ गया था. सांगा ने ऊपर वाली, राका ने नीचे वाली और मुझे मिली बीच वाली बीरथ. मैंने पढने के लिए कुछ magazines ली थी, ,कान में वॉकमैन लगाया और पढ़ते पढ़ते सो गया. सुबह आँख खुली तो पौ फट चुकी थी और चाय वाले, अखबार वाले कोलाहल मचा रहे थे. अपनी सुबह newspaper पढ़े बगैर नहीं होती है इसलिए दैनिक जागरण की एक कॉपी ली और स्पोर्ट्स पन्ने पर नज़र घुमाई. गाड़ी भोपाल स्टेशन पर रुकी थी और सुबह की ठंडी ठंडी हवा चल रही थी. दोनों मित्रगन भी उठ गए थे और समय आ गया था की बीच वाली बीरथ फोल्ड करी जाए और बैठने और बतियाने का इन्तेजाम किया जाये. अभी पूरे १२ घंटे का सफ़र बाकी था. हमने गाड़ी से उत्तर के ज़रा माहोल का जायजा लिया ताकि कहने को तो हो - हा भाई हम भी भोपाल जा चुके है.


मध्य भारत में पटरियों का जाल अच्छा बीचा हुआ है और लगभग पूरा route इलैक्ट्रिक एंड डबल लाइन है, इसीलिए गाडिया इस क्षेत्र में अपनी पूरी स्पीड से चल सकती है. अब समय आ गया था रेल के दरवाज़े पर खड़े होने का और हवा खाने का. गाडी अपनी पूरी रफ़्तार पर थी और हम तीनो, दो एक दरवाज़े पर और सांगा दुसरे दरवाज़े पर खड़े हुए हवा से बतियाने का प्रयास कर रहे थे. मध्य भारत का भूगोल उतारी भारत से थोडा अलग है यहाँ पर हरियाली भी है और छोटे छोटे पठार भी है, इस दौरान गाडी काफी सुरंगों से भी होकर निकलती है और सर्प के तरह रेंगती हुई पर्वत श्रंखलाओं के मध्य से निकलती रहती है. चम्बल के डाकू यही कही आसपास पाए जाते थे।

गर्मी बढने लगी थी और पसीने छूटने लगे थे, ऊपर चलते हुए पंखे भी अब गरम हवा देने लगे थे. दोपहर के भोजन का वक़्त हो चला था, रेलवे कैटरिंग का नुमायन्दा आर्डर लेके जा रह था, हम लोगो ने भी तीन थालियाँ आर्डर कर दी. रेलवे कैटरिंग का खाना खाना भी अपने आप में एक अनुभव है और हर भारतीय इस से परिचित होगा. भक्षण के पश्चात हमने सोचा आराम किया जाये और ऊपर वाली बीरथ पर कूद कर पहुँच गए. बीरथ गरम हो चुकी थी और जैसी ही हम लेते हमरा मुह बीरथ के साथ चीपक गया (पसीने के कारण). हम भी दीठ थे इसलिए गर्मी की परवाह न करते हुए एक घंटे सो गए.

जब उठे तो गाड़ी के चक्कर लगाने का टाइम आ गया था, लम्बी यात्रा में यह अनिवार्य हो जाता है की देख कर आया जाये की बाकि डब्बो में कौन कौन बैठा है? और क्या कही आँखों के सेखे जाने का जुगाड़ है की नहीं? हम तीनो गाडी के टूर पर निकल गए......



" भाईसाब हमारे सामान का ध्यान रखियेगा हम जरा होके आते है." वापस आये तो गाड़ी में हिजडे धमाचौकडी मचाये हुए थे. हम लोग जैसे ही बैठे तो सांगा से पैसे मांगे तो वो कहता है की पांडू से लो, इस साले के पास बहुत माल है.



" हाय हाय, अरे मेरे सलमान खान, ला दस रुपैये दे दे!
सांगा बोला - तुम मुझे दस रुँपैये दे दो, जो बोलेगे मैं करूँगा
हाय हाय, हमारी तरह गाने गा कर सुनाएगा?
कौन सा गाना सुनना है?
सांगा ने अपना बेसुरा गला फाडा तो हिजडे ने भी तौबा कर ली और उसको दस का नोट पकडाने लगे, फजीहत होते देख सांगा ने पैंतरा बदला और मेरी तरफ़ वापस इशारा कर दिया। मैं बहुत खीज रहा था और काफ़ी गंभीर मुद्रा में आ चुका था.

वैसे हिजडों के साथ आप जिरह करो तो वो बदतमीजी पर उतर आते ही, पर सांगा काफी सुलझा हुआ लड़का था और वह उसकी बातो का बुरे नहीं मान रहे थे और काफी आराम से बात कर रहे थे. सांगा ने उनका रूख मेरी तरफ कर दिया और मुझे न चाह कर भी अपनी जेब ढीली करनी पड़ी.

शाम होने लगी थी और गाडी महाराष्ट्र दाखिल हो चुकी थी. फिर से नज़ारे बदल गए थे और यहाँ की गायो के सींग काफी लम्बे लम्बे थे. खेतो में फसल लहला रही थी. गाँव में ही असली भारत बसता है. किसानो की वैस्भुषा भी बदल चुकी थी और हर कोई गांधी टोपी पहना नज़र आ रह था. पुणे आ गया था और रिकॉर्ड बनाने की खातिर हमने प्लात्फोर्म पर उतर अपने कर्तव्य का निर्वाह कर दिया था।


फिर आया इगतपुरी, मतलब बॉम्बे का एंट्री पॉइंट. इगतपुरी स्टेशन पर बड़ी स्वाद कलेजी फ्राई मिलती है. यहाँ गाडी आधा घंटा रूकती थी, इसलिए हम लोगो ने पेट पूजा करी, और थोडी देर प्लात्फोर्म पर आवारागर्दी कर वापस अपनी अपनी जगह आ गए और कॉलेज के लड़कियों के बारे में विचार विमर्श करने लगे।





रात के सात बजे के आसपास हम बॉम्बे में दाखिल हो चुके थे। concrete जंगल और हर तरफ लोग ही लोग। हर तरफ अपार्टमेंट्स ही अपार्टमेंट्स नज़र आ रहे थे.

फिर दिखी लोकल ट्रेन और उसमे लटकते हुए और एक एक इंच पर खड़े हुए लोग। यह सब एक सपने के जैसा प्रतीत हो रह था, धीरे धीरे वो सारे नाम स्टेशन बोअर्ड्स पर लिखे दीख रहे थे, जिन्हें हम सिर्फ फिल्मो और टीवी में देखते हुए आये थे. ठाणे, कुर्ला, बांद्रा......

गाडी धीरे धीरे रेंगते हुए दादर स्टेशन पर रुकने जा रही थी, हम लोग अपना सामान बांध कर दरवाज़े की तरफ मुखातिब हो रहे थे। बॉम्बे में हमारे भविष्य के लिए क्या छुपा था बस इसकी कल्पना भर ही की थी......

पर अब असलियत को समझने और देखने का समय आ गया था।

लूका स्टेशन पर खडा हमारा वेट कर रह था..............

जारी....

3 comments:

  1. narrow guage --> Meter Guage. Narrow guage was never used in this area.

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  2. bhai agla paath kahan hai..pata hai mujhe hamesha se dusro ki jeevan ke baare mein padhna accha lagta hai...

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  3. bhai aapko pata hai aapne beech mein itna majedar tarike se kahani ko bayan kiya hai ki i bet aap acche lekhak ban sakte ho...

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